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Sunday, 1 July 2018

शिवाजी का सच्चा स्वरूप


शिवाजी का सच्चा स्वरूप

          बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेठ गोविंददास हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में एक यशस्वी साहित्यकार के रूप में विख्यात है । यद्यपि सेठजी ने बड़े-बड़े नाटक, उपन्यास, जीवनी, यात्रा-संस्मरण आदि सभी साहित्यिक विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया, तथापि एकांकी के सृजन में उन्हें जो कीर्ति एवं ख्याति प्राप्त हुई है, वह अन्य विधाओं में प्राप्त नहीं हुई है। उन्होने विपुल मात्रा में एकांकियों की रचना करके हिन्दी- एकांकी को समृद्ध एवं सम्पन्न बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है ।
        सेठ गोविंददास ने शिवाजी का सच्चा स्वरूप नामक एकांकी का सृजन यदुनाथ सरकार के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शिवाजी एंड हीज टाइम्स को आधार बनाकर किया है । इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने भारतीय संस्कृति एवं भारतीय परंपरा के उज्ज्वल पक्ष का निरूपण किया है । लेखक ने अपनी एकांकियों में प्राय: ऐसे ही चरित्रों को प्रस्तुत किया है जो अपनी चारित्रिक विशेषता के कारण भारतीय सभ्यता का मस्तक ऊंचा उठाते है। सेठ गोविंददास का  शिवाजी का सच्चा स्वरूप एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एकांकी नाटक है । इसमें शिवाजी महाराज के उदात्त चरित्र की झाँकी अंकित हुई है ।
        एक दिन संध्या के समय आवजी कल्याण-विजय के उपरांत शिवाजी महाराज के पास आते हैं और कल्याण की लूट में प्राप्त चाँदी, सोना, जवाहरात आदि के साथ-साथ एक अमूल्य तोफा लेकर शिवाजी महाराज की सेवा में प्रस्तुत करते है। यह अमूल्य तोफा था—कल्याण के सुभेदार अहमद की की अत्यंत सुंदर पुत्र-वधू, जिसे पालकी में बैठाकर आवाजी श्रीमंत शिवाजी महाराज की सेवा के लिए लाये थे। शिवाजी महाराज उसे देखते ही पहले तो अहमद की पुत्रवधू की क्षमा याचना करते है और कहते हैं कि, “आपको देखकर मेरे दिल में एक......... सिर्फ एक बात उठ रही है--- कहीं मेरी माँ में आपकी सी खूबसूरती होती तो मैं भी बदसूरत न होकर एक खूबसूरत शख्स होता । माँ आपकी खूबसूरती को मैं एक..... सिर्फ एक काम में ला सकता हूँ- उसका हिन्दू-विधि से पूजन करूँ ; उसकी इस्लामी तरीके से इबादत करूँ । आप जरा भी परेशान न हों । माँ, आपको आराम, इज्जत, हिफाजत और खबरदारी के साथ आपके शौहर के पास पहुँचा दिया जाएगा ; बिना देरी के, फौरन।”
        इतना कहकर शिवाजी महाराज आवाजी को भी फटकारते हैं, पश्चाताप प्रकट करते हैं और पेशवा को आज्ञा देते है कि भविष्य में अगर कोई ऐसा कार्य करेगा तो उसका सिर उसी समय धड़ से जुदा कर दिया जाएगा। इस प्रकार इस एकांकी में शिवाजी महाराज की सच्चरित्रता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । इस एकांकी में छत्रपति शिवाजी महाराज के उदात्त चरित्र का चित्रांकन किया है। कल्याण की लूट में आवाजी सोनदेव द्वारा लायी गयी अहमद की पुत्रवधू को देखकर शिवाजी महाराज उसे माँ कहकर सम्बोधन करते है और उससे क्षमा-याचना करते है।  शिवाजी महाराज उसका केवल सम्मान एवं आदर ही नहीं करते, बल्कि सही-सलामत उसके घर भी भिजवा देते है और उस भयभीत युवती से स्पष्ट कहते हैं कि, आप जरा भी परेशान न हों । माँ, आपको आराम, इज्जत, हिफाजत और खबरदारी के साथ आपके शौहर के पास पहुँचा दिया जाएगा ; बिना देरी के, फौरन।”  इतना ही नहीं शिवाजी महाराज उस दिन यह भी घोषणा करते है कि, भविष्य में अगर कोई ऐसा कार्य करेगा, तो  उसका सिर उसी समय धड़ से जुदा कर दिया जाएगा।”
       अतएव शिवाजी महाराज के हृदय में नारी के लिए केवल सम्मान एवं आदर का ही भाव नही था, बल्कि वे सभी धर्मों का आदर करते थे, सभी धर्मों की पुस्तके पूज्य मानते थे, और सभी धर्मस्थानों का सन्मान करते थे। तभी तो शिवाजी महाराज ने कहा कि, शिव ने आज पर्यंत किसी मसजिद कि दीवाल में बाल बराबर दरार भी न आने दी । शिव को यदि कहीं कुरान की पुस्तक मिली तो उसने उसे सिर पर चढ़ा उसके एक पन्ने को भी किसी प्रकार की क्षति पहूँचाए बिना मौलवी साहब की सेवा मैं भेज दिया। हिन्दू होते हुए भी शिव के लिए इस्लाम-धर्म पूज्य है। ”
        इस तरह सेठ गोविंददास ने यहाँ शिवाजी महाराज के महान एवं उन्नत चरित्र का उदघाटन करते हुए उन्हें परनारी को माता मानने वाला, सभी धर्म पुस्तकों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने वाला, सभी धर्मों को आदर देने वाला, सभी धर्मों के पवित्र स्थानों को पूज्य मानने वाला, हिन्दू और मुसलमान प्रजा में कोई भेद-भाव न मनाने वाला, आतताइयों से सत्ता अपहरण करके उदारचेताओं के हाथों में अधिकार देने वाला, रक्तपात एवं लूट-मार को घृणित कार्य मनाने वाला तथा सतत जागरूक एवं विवेकशील राजा के रूप में चित्रित किया है ।
        समग्रत: कहा जा सकता है कि, शिवाजी का सच्चा स्वरूप एकांकी में शिवाजी के ऐसे सुदृढ़ एव उत्कृष्ठ चरित्र की झाँकी अंकित की है, जिससे हमें परनारी को माता के समान पूज्य मानने की शिक्षा मिलती है, पर-धर्म को भी आदर देने का उपदेश मिलता है, दूसरों के धार्मिक ग्रन्थों को भी श्रेष्ठ मानने की भावना प्राप्त होती है, शील को सर्वोपरि मानने का आदेश मिलता है और इंद्रिय-लोलुपता को घृणा की दृष्टि से देखने का दृष्टिकोण प्राप्त होता है।
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