Wednesday, 29 August 2018
Sunday, 1 July 2018
शिवाजी का सच्चा स्वरूप
शिवाजी का सच्चा स्वरूप
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेठ गोविंददास हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में एक यशस्वी साहित्यकार के रूप में विख्यात है । यद्यपि सेठजी ने बड़े-बड़े नाटक, उपन्यास, जीवनी, यात्रा-संस्मरण आदि सभी साहित्यिक विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया, तथापि एकांकी के सृजन में उन्हें जो कीर्ति एवं ख्याति प्राप्त हुई है, वह अन्य विधाओं में प्राप्त नहीं हुई है। उन्होने विपुल मात्रा में एकांकियों की रचना करके हिन्दी- एकांकी को समृद्ध एवं सम्पन्न बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है ।
सेठ गोविंददास ने ‘शिवाजी का सच्चा स्वरूप’ नामक एकांकी का सृजन यदुनाथ सरकार के सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘शिवाजी एंड हीज टाइम्स’ को आधार बनाकर किया है । इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने भारतीय संस्कृति एवं भारतीय परंपरा के उज्ज्वल पक्ष का निरूपण किया है । लेखक ने अपनी एकांकियों में प्राय: ऐसे ही चरित्रों को प्रस्तुत किया है जो अपनी चारित्रिक विशेषता के कारण भारतीय सभ्यता का मस्तक ऊंचा उठाते है। सेठ गोविंददास का ‘शिवाजी का सच्चा स्वरूप’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एकांकी नाटक है । इसमें शिवाजी महाराज के उदात्त चरित्र की झाँकी अंकित हुई है ।
एक दिन संध्या के समय आवजी कल्याण-विजय के उपरांत शिवाजी महाराज के पास आते हैं और कल्याण की लूट में प्राप्त चाँदी, सोना, जवाहरात आदि के साथ-साथ एक अमूल्य तोफा लेकर शिवाजी महाराज की सेवा में प्रस्तुत करते है। यह अमूल्य तोफा था—कल्याण के सुभेदार अहमद की की अत्यंत सुंदर पुत्र-वधू, जिसे पालकी में बैठाकर आवाजी श्रीमंत शिवाजी महाराज की सेवा के लिए लाये थे। शिवाजी महाराज उसे देखते ही पहले तो अहमद की पुत्रवधू की क्षमा याचना करते है और कहते हैं कि, “आपको देखकर मेरे दिल में एक......... सिर्फ एक बात उठ रही है--- कहीं मेरी माँ में आपकी सी खूबसूरती होती तो मैं भी बदसूरत न होकर एक खूबसूरत शख्स होता । माँ आपकी खूबसूरती को मैं एक..... सिर्फ एक काम में ला सकता हूँ- उसका हिन्दू-विधि से पूजन करूँ ; उसकी इस्लामी तरीके से इबादत करूँ । आप जरा भी परेशान न हों । माँ, आपको आराम, इज्जत, हिफाजत और खबरदारी के साथ आपके शौहर के पास पहुँचा दिया जाएगा ; बिना देरी के, फौरन।”
इतना कहकर शिवाजी महाराज आवाजी को भी फटकारते हैं, पश्चाताप प्रकट करते हैं और पेशवा को आज्ञा देते है कि भविष्य में अगर कोई ऐसा कार्य करेगा तो उसका सिर उसी समय धड़ से जुदा कर दिया जाएगा। इस प्रकार इस एकांकी में शिवाजी महाराज की सच्चरित्रता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । इस एकांकी में छत्रपति शिवाजी महाराज के उदात्त चरित्र का चित्रांकन किया है। कल्याण की लूट में आवाजी सोनदेव द्वारा लायी गयी अहमद की पुत्रवधू को देखकर शिवाजी महाराज उसे ‘माँ’ कहकर सम्बोधन करते है और उससे क्षमा-याचना करते है। शिवाजी महाराज उसका केवल सम्मान एवं आदर ही नहीं करते, बल्कि सही-सलामत उसके घर भी भिजवा देते है और उस भयभीत युवती से स्पष्ट कहते हैं कि, “आप जरा भी परेशान न हों । माँ, आपको आराम, इज्जत, हिफाजत और खबरदारी के साथ आपके शौहर के पास पहुँचा दिया जाएगा ; बिना देरी के, फौरन।” इतना ही नहीं शिवाजी महाराज उस दिन यह भी घोषणा करते है कि, “भविष्य में अगर कोई ऐसा कार्य करेगा, तो उसका सिर उसी समय धड़ से जुदा कर दिया जाएगा।”
अतएव शिवाजी महाराज के हृदय में नारी के लिए केवल सम्मान एवं आदर का ही भाव नही था, बल्कि वे सभी धर्मों का आदर करते थे, सभी धर्मों की पुस्तके पूज्य मानते थे, और सभी धर्मस्थानों का सन्मान करते थे। तभी तो शिवाजी महाराज ने कहा कि, शिव ने आज पर्यंत किसी मसजिद कि दीवाल में बाल बराबर दरार भी न आने दी । शिव को यदि कहीं कुरान की पुस्तक मिली तो उसने उसे सिर पर चढ़ा उसके एक पन्ने को भी किसी प्रकार की क्षति पहूँचाए बिना मौलवी साहब की सेवा मैं भेज दिया। हिन्दू होते हुए भी शिव के लिए इस्लाम-धर्म पूज्य है। ”
इस तरह सेठ गोविंददास ने यहाँ शिवाजी महाराज के महान एवं उन्नत चरित्र का उदघाटन करते हुए उन्हें परनारी को माता मानने वाला, सभी धर्म पुस्तकों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने वाला, सभी धर्मों को आदर देने वाला, सभी धर्मों के पवित्र स्थानों को पूज्य मानने वाला, हिन्दू और मुसलमान प्रजा में कोई भेद-भाव न मनाने वाला, आतताइयों से सत्ता अपहरण करके उदारचेताओं के हाथों में अधिकार देने वाला, रक्तपात एवं लूट-मार को घृणित कार्य मनाने वाला तथा सतत जागरूक एवं विवेकशील राजा के रूप में चित्रित किया है ।
समग्रत: कहा जा सकता है कि, ‘शिवाजी का सच्चा स्वरूप’ एकांकी में शिवाजी के ऐसे सुदृढ़ एव उत्कृष्ठ चरित्र की झाँकी अंकित की है, जिससे हमें परनारी को माता के समान पूज्य मानने की शिक्षा मिलती है, पर-धर्म को भी आदर देने का उपदेश मिलता है, दूसरों के धार्मिक ग्रन्थों को भी श्रेष्ठ मानने की भावना प्राप्त होती है, शील को सर्वोपरि मानने का आदेश मिलता है और इंद्रिय-लोलुपता को घृणा की दृष्टि से देखने का दृष्टिकोण प्राप्त होता है।
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xखजुराहो का शिल्पी
खजुराहो का शिल्पी ( लेखक- डॉ. शंकर शेष )
‘खजुराहो का शिल्पी’ ऐतिहासिक आधार पर लिखा गया डॉ. शंकर शेष का एकमात्र नाटक है। डॉ. शंकर शेष ने इस नाटक में ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से शाश्वत और युग –युग के सत्य को उदघाटित किया है। चन्देला राजा यशोवर्मन अत्यंत शूर तथा शक्तिशाली था। उसने खजुराहो के भव्य मन्दिर का निर्माण किया और उसमें देवपाल से प्राप्त की गयी विष्णु की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की।
प्रस्तुत नाटक का मूल उद्देश्य इतिहास का निर्वाह न होकर ऐतिहासिक सन्दर्भ की नयी व्याख्या करते हुए उसका आधुनिकता के साथ संपर्क स्थापित करना है। संसार के अधिकांश लोग अपना जीवन वासना-भाव से जीते हैं। वासना का स्थूल रूप है यौवनाकर्षण। बहुत कम लोग है जो जीवन को पूजा भाव से जीते हैं। जीवन को मोक्ष भाव से जीनेवाले बिरले ही होते है। खजुराहो में बनाये गए मंदिर की स्थापत्य कला के माध्यम से जगत के इसी परम सत्य का निरुपण किया गया है। मन्दिर का बहिर्भाग आकर्षक मिथुन मुद्राओं से गढा गया है। मध्य भाग में पुराकथाओं की भित्ति-मूर्ति गढी गयी है जिसमें अवतारवाद की कथाऍ अंकित है। मन्दिर का अंतरंग ब्रह्म- पिण्ड की स्थापना करता है। जो लोग मंदिर देखने जाते हैं, उनमें से अधिकांश लोग बहिर्भाग में बनी मिथुन मुद्राओं में ही खो जाते हैं। पिण्ड भाग तक जाने की उन्हें सुधि नहीं रहती। कुछ लोग बहिर्भाग को महत्वहीन मानकर मध्य भाग तक पहुँचते हैं और अवतारवादी भूमिका में ही खो जाते हैं। संसार को समभाव से जीनेवाले ऐसे बिरले व्यक्ति ही होते हैं जो बीच में कहीं रुके बिना सीधे पिण्ड भाग तक पहुँच पाते हैं। संसार के अधिकांश व्यक्ति निरंतर भोग-लिप्सा में डूबे रहते हैं और कुछ लोग वासना की निरर्थकता को स्वीकार करते हैं, पर मुक्ति के सही मार्ग का उन्हें भी पता नहीं होता इसलिए अवतारोपासना आदि में भटक जाते हैं। कुछ प्रबुद्ध जीव भी है जिन्होंने जीवन का रहस्य समझ लिया है। इसलिये उनकी यात्रा और दिशा निश्चित हो जाती है,वे सीधे ब्रह्म की ओर अग्रसर होते हैं, वासना उपासना में वे भटकते नहीं। खजुरहो के स्थापत्य का यही कथ्य है और यही दर्शन है। ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक इसी दर्शन को उजागर करता है।
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक की कथावस्तु/ कथानक/कथ्य :
राजा यशोवर्मन चंद्रात्रय वंश का पराक्रमी राजा है। उसके शौर्य,साहस,पराक्रम और वैभव की कीर्ति चारों ओर फैली है। एक दिन वह सपने में अपने वंश की अधिष्ठात्री देवी हेमवती के दर्शन करता है। दुःखी हेमवती अपनी कथा-व्यथा यशोवर्मन को सुनाती है। हेमवती गहिरवार राजा इंद्रजीत के पुरोहित की कन्या थी। वह अत्यंत सुंदर थी। केवल सोलह वर्ष की आयु में विधवा हुई थी। एक दिन एक चद्रमा जैसा सुंदर पुरुष उस पर मोहित हो गया। उस ‘मोह के क्षण’ में हेमवती अपना ब्राह्मणत्व-वैधव्य सब कुछ भूल गयी और एक विधवा गर्भवती हो गयी।अपनी यह व्यथा राजा यशोवर्मन को बताकर ‘मोह के क्षण’ पर विजय पाने के लिए वह मंदिरों के निर्माण की अभिलाषा व्यक्त करती है। स्वप्न के टूटते ही यशोवर्मन चिंतित हो उठता है। क्योंकि ‘मोह के क्षण’ का चित्रण और उस पर विजय पाने का मार्ग दोनों ही उसके लिए समस्या है। राजकवि माधव यशोवर्मन की चिंता दूर करना चाहता है। इसलिए वह एक ऐसे शिल्पी की तलाश में चल पडता है जिसने ‘मोह के क्षण’ को पहचाना, भोगा और जिया हो।
अपनी कल्पना के शिल्पी की तलाश में माधव सुदूर प्रांतों की यात्रा करता है। अंततः उसे मनचाहा शिल्पी यशोवर्मन की धर्मनगरी खर्जूरवाह में ही मिलता है। यायावरी जिंदगी बितानेवाला शिल्पी खर्जूरवाह के प्राकृतिक सौंदर्य से प्रभावित होता है और शिल्पकला के योग्य पत्थर वहाँ होने के कारण वहीं रुका है। शिल्पी की शिल्पकला से प्रभावित राजकुमारी अलका मूर्तिकला और चित्रकला का रहस्य जानना चहती है। वह शिल्पी की मूर्तियों के लिए प्रतिदर्शी बनती है। शिल्पी से मिलकर माधव यशोवर्मन की मंदिरों के निर्माण की कल्पना बताता है। यशोवर्मन की कल्पना शिल्पी का भोगा हुआ यथार्थ है। वस्तुतः शिल्पी भी ऐसे शिल्प-संसार की रचना करना चाहता है “जिसमें जीवन का कोई भी पहलू न छूटा हो।” ऐसा शिल्प –संसार जिसमें जीवन का हर प्रामाणिक चित्र हो, और उसे देखने के बाद प्रत्येक दर्शक को लगे कि जैसे वह संसार के भीतर और बाहर एक साथ परिक्रमा कर रहा हो। अतः अपनी कल्पना साकार करने का अवसर पाकर शिल्पी मंदिर निर्माण के लिए राजी हो जाता है।
पूर्वनियोजित योजाना के अनुसार शिल्पी यशोवर्मन से मिलता है। उसे अपनी मन्दिर की योजना से अवगत कराता है। उस योजना के अनुसार वह मंदिर के गर्भगृह में विष्णु की मूर्ति स्थापित करना चाहता है। मंदिर के भीतरी भाग की दीवारों पर विष्णु के सभी अवतारों को साकार करना चाहता है और मंदिर की बाहरी दीवारों पर जीवन को, सांसारिकता को उसकी पूरी समग्रता में अंकित करना चाहता है, जिन्हें मनुष्य निजी जीवन में जीता है, पर बाहर जिनका विरोध करता है।
उसका विश्वास है कि, “ ये प्रतिमाऍ सांसारिक आकर्षण की चरम सीमाएँ बनकर मनुष्य के सामने ‘मोह का क्षण’ प्रस्तुत करेंगी। ... यदि वह क्षण से ग्रसित हुआ तो पुनः संसार में लौट आएगा। और कहीं उसने इसे जीत लिया, तो वही क्षण अध्यात्म के राजपथ पर प्रस्थान-बिन्दु बनेगा।” शिल्पी के दर्शन, मंदिर की योजना आदि को यशोवर्मन स्वीकृति प्रदान करता है। अंत में शिल्पी राजकुमारी अलका को प्रतिदर्शी के रूप में चाहता है। इस चुनौती को स्वीकारते हुए यशोवर्मन शिल्पी की इस बात पर भी राजी होता है।
मन्दिर निर्माण का कार्य आरंभ होता है। शिल्पी दिन रात मेहनत करता है। राजकुमारी अलका शिल्पी की कल्पना को साकार करने के लिए दिन-रात एक करती है। शिल्पी की हर वांछित मुद्रा और भाव में वह अपने-आपको ढालती है। इसी दौरान वह शिल्पी की ओर आकर्षित होती है किंतु शिल्पी तटस्थ है, निर्मोही है।
शिल्पी और अलका को लेकर राजशिल्पी चण्डवर्मा अफवाहें फैलाने लगता है, तो महारानी पुष्पा चिंतित हो उठती है। उसकी चिंता का निवारण करने हेतु राजा वृद्ध यात्रिक का वेष धारण कर शिल्पी की कुटिया में एक रात गुजारता है। अपने में मग्न निर्विकार शिल्पी को देखकर वह प्रसन्न होता है।
इधर विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के मुखिया भी मंदिर की दीवारों पर अंकित की जानेवाली मिथुन मूर्तियों की आवश्यकता पर विचार करने हेतु यशोवर्मन से मिलते हैं। धर्मगुरु, तांत्रिक, यशोवर्मन, शिल्पी, माधव तथा चण्डवर्मा इन सबका सुदीर्घ वाद-विवाद होता है। अंततः शिल्पी सभी के आरोप और आक्षेपों का समाधान करने में सफल होता है।
मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा होती है। कवि माधव, शिल्पी, यशोवर्मन, सभी प्रसन्न है- अपने स्वप्न को साकार देखकर लेकिन प्रतिदर्शी अलका व्यथित है। ‘मोह के क्षण’ को परास्त करने के लिए प्रतिदर्शी बनी उसकी आत्मा शिल्पी के प्रति एकनिष्ठ भाव से समर्पित है। लेकिन जिस साध्य को पाने के लिए वह साधन बनी, उसी से छली गयी। शिल्पी की ओर आकर्षित अलका शिल्पी को देह की दुनिया में खींच ले जाने की कोशिश करती है। “शिल्पी आत्मा के धरातल पर संघर्ष करता है और अंततः उसकी साधना की विजय होती है, वह प्रस्तरीभूत भावनाओं के समक्ष साक्षात मोह के क्षण (अलका) को अस्वीकार कर देता है। उसके लिए वह कला वरेण्य है जो उसकी आत्मा की अनुभूतियों को रुपाकार देती है।” इसीलिए वह अलका को तो स्वीकार नहीं कर सकता और अलका की प्रतिमा को त्याग भी नहीं सकता।
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक में युगीन अभिव्यक्ति एवं मूल्यबोध : -
‘खजुराहो का शिल्पी’ ऐतिहासिक कथावस्तु वहन करने वाला एक ऐसा संघर्षशील नाटक है जो कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिए हमें ऐसे जीवनादर्श की ओर ले जाता है जहाँ आदमी आदमी नहीं रहता, पर्याप्त आध्यात्मिक योगी बन जाता है। नाटक का अंत जिस आध्यात्म की सीख देता है उसे देखते हुए इसे आदर्शवादी कृति कहना उचित होगा।
ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं सदी का काल है। चंद्रात्र्येय वंश का राजा यशोवर्मन की धर्म नगरी मध्यदेश की खर्जूरवाह यानी खजुराहो। इन खजुराहो के मंदिरों का सबसे भिन्न वैशिष्ट्य है,उनकी भित्ति पर एक साथ शृंगारिक और आध्यात्मिक चित्र खुदे हुए है। मंदिर के चित्र तीन भागों में बँटे हुए है। बाहरी भाग मिथुन मूर्तियों से सजा है। मध्य भाग पुराण कथाओं के माध्यम द्वारा ईश्वर की विभिन्न अवतारों की उद्भावना करता है और तीसरा भाग गर्भगृह है। गर्भगृह में ब्रम्ह की स्थापना करके मंदिर की त्रिमितीय रचना की गयी है। इस मूल ऐतिहासिक सत्य को लेकर नाटककार ने एक विवदास्पद विषय को मनोविद्न्यान और संवेदना के स्तर पर उठाया है।
मंदिर की त्रिमितीय रचना के अनुसार ये तीनों स्तर संसार के तीन वर्गों में बँटे लोगों के प्रतीक है। पहला वर्ग मिथुन मूर्तियों के समान निरंतर भोग-लिप्सा में डूबा रहना चाहता है। दूसरा वर्ग भोग-लिप्सा को चाहता है परंतु उसमें बह जाना नहीं। वह भोग से होकर मोक्ष की कामना चाहता है। तीसरा वर्ग भोग से विरक्त होकर अध्यात्म में लीन रहना चाहता है।
इस ऐतिहासिक सत्य में छिपे रहस्य और दर्शन का संदर्भ देना नाटककार का प्रमुख लक्ष्य रहा है। जीवन की परिपूर्णता शृंगार और भोग के बाद ही अध्यात्म में है। जीवन के भोग व तद्जन्य अनुभव लिए बिना अध्यात्म तक पहुँचना एक समस्या है। इसलिए भोग में रत हुए बिना उदात्तीकरण लगभग असंभव है। अगर इस हलाहल का स्वाद लिए बिना ही तटस्थता से अध्यात्म की ओर जाने का प्रयास हुआ तो वह जीवन से पलायन हो जाता है। नाटक में शिल्पी के संवाद इसी सत्य को पुष्ट करते हैं – “ महाराज ! ये प्रतिमाऍं सांसारिक आकर्षण की चरम सीमाएँ बनकर मनुष्य के सामने ‘मोह का क्षण’ प्रस्तुत करती है। --- यदि वह इस क्षण से ग्रसित हुआ तो वह पुनः संसार में लौट जाएगा। और कहीं उसने इसे जीत लिया तो यही क्षण अध्यात्म के राजपथ पर प्रस्थान-बिंदु बनेगा।”
खजुराहो का मंदिर इसी सत्य को कहने के लिए त्रिमितीय मूर्तियों का आधार लेता है, उसी बात को नाटककार ने जीवंत चरित्रों के माध्यम से कहने का सफल प्रयास किया है। अगर नाटककार खजुराहो की मूर्तियों को माध्यम बनाकर इन घटनाओं को यथातथ्य रूप में प्रस्तुत करता है, तो जीवन की गरिमामयी दिशा के संकेत नहीं दे पाता। वह केवल इतिहास का एक संकलन, एक ऐतिहासिक कथा मात्र बनकर रह जाता है। यह कथा वस्तुतः मानव के उत्थान और पतन की कथा बन सकी है और उसे कई कई युगों से जोड़ने में नाटककार की कुशल रचनाधर्मिता व्यक्त हुई है, जिससे शाश्वत मानवीय सत्य व्यक्त हुआ है।
इस नाटक के सभी पात्र ऐतिहासिक होते हुए भी सर्वसामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियों के प्रतीक बनकर आए है। अलका और महारानी पुष्पा के व्यक्तित्व समर्पित स्री जीवन के चित्र है। इन दोनों पात्रों में सामान्य मनुष्य के हृदय की भावनाएँ पायी जाती है। अलका युग युग का सत्य है। अलका ही ऐसा एकमात्र पात्र है, जो नाटक के कथ्य को अधिकाधिक खोलता है। अध्यात्म के प्रस्थान बिंदु को परिभाषित करता है। अलका का यह कथन भोग से योग के कथ्य को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है -----“ यह संसार तो कमजोर लोगों का है। यहाँ भूख लगती है, शरीर तपता है। इसलिए शिल्पी, अध्यात्म छूटते देर नहीं लगती।” महाराज यशोवर्मन ऐतिहासिक व्यक्तित्व के अलावा एक सामान्य पिता के रूप को व्यक्त करते हैं। चण्डवर्मा भारतीय परंपराओं के भारवाही मात्र रह गए हैं जो किसी भी काल में पाए जाते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि नाटककार ने इतिहास के गर्भ से अपने समय का संकेत प्रक्षेपित किया है। यह करते समय ऐतिहासिक पात्रों, घटनाओं के अनुरूप परिवेश निर्माण करके पात्रों को युग और भेद के साथ विश्लेषित और परिभाषित किया है।
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक के पात्र तथा चरित्र- चित्रण
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक में आठ पात्र है, इनमें यशोवर्मन, शिल्पी, और अलका प्रमुख पात्र है और अन्य सभी पात्र गौण है।
यशोवर्मन
यशोवर्मन ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक का प्रमुख पात्र है। वह चंद्रात्र्येय वंश का पराक्रमी, साहसी, विवेकी और न्यायप्रिय राजा है। वह मध्यप्रदेश के खजुराहो का अधिपति है। वह प्रजापालक, प्रजारक्षक और प्रजा-सेवक के रूप में सामने आता है। उसके विवेकी, संयत, व्यक्तित्व की परीक्षा तब होती है जब शिल्पी उसकी कन्या राजकुमारी अलका को प्रतिदर्शी के रूप में माँगता है। यशोवर्मन शिल्पी की माँग स्वीकार करता है और एक असाधारण कसौटी पर खरा उतरता है।
यशोवर्मन अपनी दृढता और शक्ति के कारण ऐतिहासिक व्यक्तित्व की स्मृति दिलाता है। उसका शौर्य पूर्व में मिथिला तक, उत्तर में कश्मिर तक माना जाता है। अलका के प्रति मोह और चिंता के कारण वह एक सामान्य पिता का रूप भी धारण कर लेता है। यशोवर्मन स्वप्न में अपने वंश की अधिष्ठात्री हेमवती का दर्शन करता है। हेमवती उसे अपनी करुण कहानी सुनाकर ‘मोह के क्षण’ पर विजय पाने के लिए कुछ करने की सलाह देती है। मोह के क्षण को परास्त करने हेतु वह भगवान वैकुंठेश्वरनाथ के मंदिर का निर्माण करता है। वह अपनी धर्म नगरी में सभी पंथों के मंदिर बनवाकर यह दिखा देना चाहता है कि उसकी नगरी में पंथों और धर्मों में आपसी विरोध नहीं है। सच्चे कलाकार का सम्मान करना वह जानता है।
यशोवर्मन के विवेक और न्याय-बुद्धि का परिचय एक बार फिर होता है जब लोकापवाद से ड़री महारानी पुष्पा शिल्पी पर दुश्चरित्र और व्यभिचारी आदमी होने का आरोप लगाती है। न्यायप्रिय राजा सुनी-सुनायी बातों पर विश्वास नहीं करता। वह स्वयं एक वृद्ध यात्रिक का भेस बदलकर मध्यरात्रि के समय शिल्पी के घर जाता है। अलका और शिल्पी का व्यवहार देखता है। निर्मोही, विदेही, योगी शिल्पी को देखकर प्रसन्नचित्त लौट आता है। यशोवर्मन कला-प्रेमी है और इसीलिए ‘मोह के क्षण’ को जीतनेवाले मंदिरों के निर्माण की क्रंतिकारी योजना को प्रोत्साहन देता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि, यह एक बहुआयामी आदर्श चरित्र है। प्रजा के रक्षक इस ऐतिहासिक पात्र को आधुनिक संगति में आदर्श मानवीय रूप में प्रस्तुत करना शंकर शेष की महत्वपुर्ण उपलब्धि है।
शिल्पराज आनंद (शिल्पी)
‘खजुराहो का शिल्पी’नाटक में शिल्पराज आनंद नायक है। शिल्पी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है। वह सौंदर्य, यौवन, वैभव और ममत्व जैसे प्रलोभनों से मुक्त है। वह जिद्दी और समझौता न करनेवाला व्यक्ति है। यायावरी और सौंदर्य दोनों उसके शिक्षक है। स्वच्छंदता के कारण जीवन में वह किसी भी प्रकार के बंधन को नहीं स्वीकारता। उसने गुरु पत्नी के साथ मोह के क्षण को भोगा है इसलिए वह पतन की पीड़ा को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहता है। उसकी एक बाँह में ड़रावना सर्प और दूसरी बाँह में स्री रहती है। उसके चरित्र को मृत्यु तथा शृंगार अलौकिक बना देता है। वह अध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुँच चुका है। वह विदेह और योगी पुरुष है।
शिल्पी के चरित्र में जो दृढता, निःस्पृहता, अध्यात्म है वह वास्तव में दुःखद अतीत की देन है। ‘मोह के क्षण’ के भँवर में फँसकर शिल्पी गुरुपत्नी के साथ अनैतिक आचरण करता है और इस अपराध की ज्वाला में वर्षों तक जलता है। वह उस पीड़ा की अनंत व्यथा भोगता है। तब पीड़ा से उत्पन्न होता है-एक जीवन दर्शन। वह जान जाता है कि संसार में रहकर ही सांसारिक आकर्षणों को पराजित किया जा सकता है। संसार के दुःख-सुख को भोगे बिना उसे निस्सार कहना पलायन है।भूख के बाद काम ही संसार का सबसे बड़ा आकर्षण है। काम सदैव ही संसार की गतिशीलता का केन्द्रीय भाव रहा है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में सदैव ही मोक्ष से पहले काम रहा है। मनुष्य-मन की चिरकाल तक दो ही स्थितियाँ रही है-एक सकाम और दूसरी निष्काम। मनुष्य हमेशा संसार से मुक्त होने का प्रयत्न करता है पर ‘मोह के क्षण’ हमेशा उसे घेरते है। जिस क्षण व्यक्ति ‘मोह के क्षण’ को जीत लेगा, वही क्षण अध्यात्म के राजपथ पर प्रस्थान बिन्दु बनेगा। इस दर्शन से संबल प्राप्त करके शिल्पी आध्यात्मिक ऊँचाई हासिल कर लेता है और इसीलिए देह से युक्त होते हुए भी वह विदेह है।तभी उसकी “ एक बाँह में स्री का धधकता यौवन और दूसरी बाँह में भयानक सर्प” के रहने पर भी वह विचलित नहीं होता।
शिल्पी के चरित्र के माध्यम से नाटककार यहीं संप्रेषित करना चाहता है कि, “ मोह के क्षण को जीवन का पर्याय नहीं स्वीकार किया जा सकता, पर जीवन में मोह के क्षण भी अनिवार्य है, जो जीवन की पहचान कराते हैं। जीवन वस्तुतः शरीर के धरातल से आत्मा की ओर उन्मुख होने की साधना है। जहाँ यह साधना नहीं, वहाँ जीवन नहीं।” समग्रतः कहा जा सकता है कि, शिल्पी मेघराज आनन्द स्पष्ट वक्ता है, दृढ चरित्र है, समझौतावाद का कट्टर विरोधी है और आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचा हुआ इंसान कलाकार है।
अलका
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक में अलका का भी प्रमुख एवं प्रभावशाली चरित्र है। यह सत्य है कि अलका का व्यक्तित्व शिल्पी से भी अधिक सहज, स्वाभाविक, तथा निर्द्वंन्द्व दिखाई देता है। उसका व्यक्तित्व समर्पित है। शिल्पी की महत्वाकांक्षा को मूर्त रूप देने में उसने सहयोग दिया है। अपनी नारी सुलभ लज्जा को भी त्याग कर वह शिल्पी के सामने प्रस्तुत होती है। वह यौवन वैभव, सौंदर्य तथा ममत्व की मूर्ति है। खजुराहो का मंदिर पत्थर शिलाओं का नहीं बल्कि अलका के रूप सौंदर्य का महाकाव्य है। मंदिर का कण-कण अलकामय है।
अलका यशोवर्मन और महारानी पुष्पा की पालित कन्या है। इसके बावजूद वह यशोवर्मन के अपार स्नेह और ममता की अधिकारिणी , राजकुमारी कहलाने की अधिकारिणी है। वह अत्यंत सुंदर है। शिल्पी के शब्दों में कहा जाए, तो वह एक सजीव नारी-प्रतिमा है जिसका सौंदर्य अनिर्वचनीय है, जिसका अंग-प्रत्यंग मानो सृष्टि के हाथों की सुंदरतम रचना है, जिसकी आँखों में हर वांछित भाव संगीत की लहर-सा तैरता है।
मूर्तिकला और चित्रकला के रहस्य को जानने हेतु अलका प्रथम शिल्पी से मिलती है। लेकिन जल्दी ही वह शिल्पी की ओर आकर्षित होती है। वह उससे मन-ही-मन प्रेम करती है और शिल्पी को अपना बनाने की चाहत रखती है। ‘मूर्तिमंत मोह का क्षण’ बनकर वह शिल्पी को दुबारा देह की दुनिया में खींच लाना चाहती है। उसका सौंदर्य आदि शिल्पी के लिए एक बार चुनौती बनता है। शिल्पी आत्मा के धरातल पर संघर्ष करता है और अंततः उसकी साधना की विजय होती है, वह प्रस्तरीभूत भावनाओं के समक्ष साक्षात मोह के क्षण (अलका) को अस्वीकार कर देता है। जिस ‘मोह के क्षण’ को जीतने के लिए वह साधन बनी थी उसी से वह छ्ली गयी। उसका जीवन एक शोकांतिका बन गया, क्योंकि “ हर मूल प्रतिदर्श की यही नियति होती है। उसके आधार पर सहस्रों प्रतिमाएँ बनती है, किंतु मूल प्रतिदर्श वही-का-वही रखा जाता है।”
‘खजुराहो का शिल्पी’ की रंगमंचीयता
डॉ. शंकर शेष ने यह कृति रेडियो प्रसारण के हेतु लिखी थी। यह बात ‘खजुराहो क शिल्पी’ में मंच की मर्यादाओं को लांघने वाले जो दृश्य है, उन दृश्यों को देखकर स्पष्ट हो जाती है। इस नाटक को मंच पर लाना एक बहुत बडी चुनौती ही कहा जायेगा फिर भी इसका स्वीकार करते हुए मुम्बई में सफल मंचन करने का काम श्री. उत्तमसिंह तोमर ने किया। मंच पर प्रस्तुत किए गए दृशों में तथा रेडियो पर मूल रूप से प्रसारित नाटकीय दृश्यों में फर्क है और यह फर्क होना स्वाभाविक भी है।
नाटक कुल छह दृश्यों में विभाजित है। नाटककार ने अंकों में कथावस्तु को विभाजित न करते हुए दृश्यों में विभाजित किया है। छह दृश्यों में से दृश्य संख्या एक, तीन और पाँच का स्थान यशोवर्मन के राजमहल का एक भाग है, तो दृश्य संख्या दो, चार और छः शिल्पी की मूर्तिकला के है। अतः पूरा नाटक दृश्यबंध को दो हिस्सों में बाँटकर प्रस्तुत किया जा सकता है।
नाटक में कुल आठ पात्र है, जिनकी सूची नाटक के आरंभ में दी गयी है। इनमें छः पुरुष पात्र और दो स्री पात्र है। इनके अतिरिक्त नाटक में एक द्वारपाल है और कुछ सेवक। नाटककार ने पात्रों की वेश-भूषा, भाव-भंगिमाओं का सुस्पष्ट निर्देश दिया है। उदाहरणार्थ- “द्वार पर खाँसने की आवाज होती है। एक वृद्ध पुरुष डरता, सहमता, भीतर आता है। चेहरे पर बहुत लम्बी घनी दाढी। सर्दी से काँप रहा है। लगता है, अस्वस्थ है। इससे पहले की शिल्पी कुछ कह पाए,वह लडखडा जाता है।”
रंगमंच सजावट पर विशेष बल दिया गया है। नाटक मूलतः दो दृश्यबंधों पर खेला जता है। एक यशोवर्मन के राजमहल क एक भाग और दूसरा शिल्पी की मूर्तिशाला। प्रथम दृश्यबंध में विशेष कठिनाई नहीं है। किंतु शिल्पी की मूर्तिशाला को साकार करना कठिन है। कठिन इसलिए है कि नाटककार ने शिल्पी को अपनी मूर्तिशाला में एक शिलाखण्ड पर छेनी चलाते हुए दिखाया है और शिलाखण्ड को मंच पर लाना कठिन काम ही है।
प्रस्तुत नाटक में प्रकाश-योजना तथा ध्वनि-योजना का सार्थक प्रयोग किया गया है। दृश्य परिवर्तन के लिए प्रकाश-योजना की सहायता ली गयी है, तो ध्वनि-योजना के माध्यम से अनेक घटनाओं को साकार किया गया है। जैसे- “ मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा की घटना है।”
’खजुराहो का शिल्पी’ नाटक की रंगमंचीयता के संदर्भ में डॉ. नरनारायण राय लिखते हैं, “ नाटक की व्याख्या की संभावनाएँ असीमित नहीं है, लेकिन वस्तु के खण्ड विशेष पर निदेशकीय प्रभाव डालकर नाटक के स्वरूप में विभिन्न प्रस्तुतियों के दौरान परिवर्तन लाया जा सकता है। इस पर भी यह सच प्रतीत होता है कि निर्देशक की कल्पना के उपयोग के लिए इस नाट्य-रचना में बहुत अधिक जगह नहीं रह गयी है और अधिकांश प्रस्तुतियों के दौरान नाटक नाटककार का ही अधिक रहेगा। निदेशक के मनमाने ढंग से नाटक की काव्यात्मकता का प्रवाह खण्डित हो सकता है और इस प्रकार नाटक की मूल चेतना भी खण्डित हो सकती है। कतिपय सीमाओं के बावजूद काव्यत्व और दृश्यत्व के समन्वय का निर्वाह करने की चेष्टा जितनी इस नाट्य-रचना में हुई दिखती है, उतनी किसी अन्य कृति में नहीं।”
नाटक में नाटककार द्वारा चित्रित कथा को दो-ढाई घंटों में ही रंगमंच पर अभिनीत किया जाना संभव है। कथा का अत्याधिक विस्तार नहीं है और न उसमें जटिलता आ पाई है। नाटक की कथा को छह दृश्यों के बंधों में प्रस्तुत किया जा सकता है। नाटक की दृश्य योजना भी रंगमंच के सर्वथा अनुकूल है। जहाँ तक नाटकीय कथा के विस्तार का प्रश्न है, उस संबंध में नाटक पूर्णतः अभिनेय है। अतः कहा जा सकता है कि, ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक अभिनेयता की कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरता है। इसमें रंगमंच के सभी गुण है।
'खजुराहो का शिल्पी’ नाटक में मोह और मोक्ष के संघर्ष का चित्रण :-
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक नाटककार डॉ. शंकर शेष के लम्बे चिंतन और मनन की उपज है। उन्होंने प्रस्तुत नाटक में गंभीर दर्शन को पाठकों के सामने रखा है। प्राचीन काल से संसार में होने वाले माया और मोक्ष के संघर्ष को नये ढंग से प्रस्तुत करने का नाटककार ने सफल प्रयास किया है। लाख कोशिशों के बाद भी संसार में काम भावना बनी रही है। प्रचीन काल से ही मनुष्य की सकाम और निष्काम प्रवृत्तियाँ एक गतिशील भाव बनकर स्थायी रही है। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में काम का क्रम मोक्ष से पहले है और मोक्ष का अंतिम। ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक निरंतर संसार पर हावी होने वाले ‘मोह का क्षण’ दर्शन संघर्ष को लेकर उपस्थित हुआ है। कहने का आशय यह है कि ‘मोह का क्षण’ ही मानव को पतनोन्मुखी बनाता है और ‘मोह का क्षण’ ही मानव को ऊर्ध्वमुखी। इन्हीं क्षणों के उतार चढाव में ‘मोह’ और ‘मोक्ष’ के मार्ग का रहस्य छिपा है जिसे व्यक्त करना ही नाटककार का लक्ष्य है।
शंकर शेष का नाटक ‘खजुराहो का शिल्पी’ खजुराहो के मन्दिर के स्थापत्य के दर्शन को सम्प्रेषित करता है। खजुराहो का यह मन्दिर अपने स्थापत्य के माध्यम से मनुष्य जीवन में होने वाले मोक्ष के आनन्द का रहस्य बताने का भरकस प्रयत्न करता है। डॉ. नरनारायण राय का मानना है कि “ शंकर शेष का ‘खजुराहो का शिल्पी’ मन्दिर के स्थापत्य के दर्शन को नाटक के माध्यम से सम्प्रेषित करता है। जो बात खजुराहो का मन्दिर कहना चाहता है, वही बात नाटककार भी कहना चाहता है। अंतर केवल यह है कि खजुराहो का मन्दिर स्थुल प्रस्तर खण्डों में ढाली गई भंगिमाओं से अपनी बात कहता है, चुप रहकर, और नाटककार की बात जीवंत चरित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है।”
‘खजुराहो का शिल्पी’ एक विवादास्पद विषय को मनोविद्न्यान और संवेदना के स्तर पर एक प्रभावशाली नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। खजुराहो के मन्दिरों की भित्तियों पर खुदी मूर्तियाँ शृंगारिक और आध्यात्मिक विषयों को एक साथ मूर्त करने के कारण सदैव विवाद का विषय रही है, दर्शकों के मस्तिष्क में वे अपने अद्भुत जीवन दर्शन से विचार आलोडन उत्पन्न करती है। डॉ. रीताकुमार का कहना है कि, “ नाटककार ने इन मूर्तियों की रचना में छिपे सत्य और रहस्य को, जिसने एक महान कलाकार को इनके निर्माण के लिए प्रेरित किया, एक मौलिक नाटकीय रूप में इस नाटक की कथावस्तु के रूप में प्रस्तुत किया है।” नाटककार ने इस मन्दिर को मानवीय जीवन की सम्पूर्णता का प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास ‘खजुराहो का शिल्पी’ रचना के माध्यम से किया है।
नाटक की कथावस्तु खजुराहो की मूर्तियों और मन्दिरों के निर्माता राजा यशोवर्मन और शिल्पी के जीवन को छः दृश्यों में प्रस्तुत करती है। यशोवर्मन एक रात स्वप्न देखता है कि उसके वंश की अधिष्ठात्री हेमवती ने उसके पास पच्चीस मन्दिर बनवाने की इच्छा व्यक्त की थी। युवावस्था में ‘मोह के क्षण’ द्वारा होने वाले मानवीय पतन की पीडा को अपने वंश की अधिष्ठात्री हेमवती के जीवन से अनुभव करने के त्वरित बाद यशोवर्मन ‘मोह के क्षण’ का स्मारक खडा करने का संकल्प करता है। नाटककार डॉ. शंकर शेष ने इस स्वप्न प्रसंग द्वारा कुशलतापूर्वक खजुराहो के मन्दिर के निर्माण की पृष्ठभूमि और विश्वसनीय आधार तैयार किया है। शिल्पी की खोज होती है। ‘मोह के क्षण’ द्वारा मानवीय पतन की पीडा को झेलने वाला, गुरु-पत्नी के साथ ‘मोह का क्षण’ भोगा हुआ कुशल शिल्पी मेघराज आनन्द मिलता है, जो अपनी शिल्प कला के द्वारा इसे अभिव्यक्त भी करना चाहता है। वह प्रायश्चित्त के रूप में तटस्थ एवं एकाकी जीवन में पहुँचकर श्रेष्ठ शिल्प-प्रतिभा को जन्म देना चाहता है। राजकुमारी अलका को प्रतिदर्श के रूप में सामने रखकर शिल्पी मन्दिर का पूरा निर्माण करता है।
शिल्पी मेघराज आनन्द शरीर के धरातल से ऊपर उठ चुका है। उसने आत्मा के आनन्द को पहचाना है। वह पतन की पीडा को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहता है। उसकी एक बाँह में डरावना सर्प है और दूसरी बाँह में स्री रहती है। सर्प के दंश तथा स्री के आलिंगन सुख का उसे बिलकुल भय नहीं है। उसके चरित्र को मृत्यु तथा शृंगार का समन्वय अलौकिक बना देता है। वह आध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुँच चुका है। वह विदेह और योगी पुरुष है। इसलिए वह प्रतिदर्श राजकुमारी अलका के प्रेम प्रस्ताव को सविनय अस्वीकार कर देता है। क्योंकि उसके लिए अब समस्त संसार तथा संसार की समस्त भौतिक उपल्ब्धियाँ अनुपादेय है। डॉ. रीताकुमार के शब्दों में,“ मन्दिरों के निर्माण का प्रेरणा-स्रोत अलका शिल्पी की हृदयहीनता पर सिसकती रह जाती है, किन्तु यहीं एक रहस्य उभरकर आता है- शिल्पी भी अलका से प्रेम करता है, पर केवल उसके प्रतिदर्श से, जीवन के कटु अनुभव ने इस सत्य को स्वीकार करने का साहस ही उससे छीन लिया है। नाटक का यह अंत उसके सम्प्रेष्य को पुष्ट कर जाता है। वस्तुतः अपने कथ्य में यह एक प्रयोग है, ऐतिहासिकता यहाँ मात्र संबल है, शाश्वत मानवीय सत्य को प्रकट करने का।”
मनुष्य जीवन में अध्यात्म जितना अनिवार्य और सत्य है उतना ही शृंगार और भोग भी। जीवन को भोगे बिना, उसके आंतरिक रूपों के अनुभव के बिना अध्यात्म तक पहुँचने की कोशिश करना एक छल है। अलका कला के आकर्षण से ही शिल्पी तक पहुँच जाती है। अपनी स्वाभाविक लज्जा त्यागकर वह शिल्पी के सामने प्रतिदर्श के रूप में प्रस्तुत होती है। वह यौवन, वैभव, सौंदर्य तथा ममत्व की मूर्ति है। उसकी भी भावनाएँ है। उसमें भी सामान्य मनुष्य का हृदय है। वह शिल्पी से प्रेम करने लगती है। शिल्पी की निःस्पृहता उसके भाव-संसार को कुचल देती है। डॉ. शंकर शेष ने अपने सम्प्रेष्य तथा युग- युग के सत्य को अलका के संवादों के माध्यम से बहुत मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है – “ .... यह संसार तो कमजोर लोगों का है- गिरने-उठने-फिर गिरने वालों का है।.... यहाँ भूख लगती है, शरीर तपता है। इसालिए शिल्पी, अध्यात्म छूटते देर नहीं लगती। .... संसार बडी कठिनाई से छूटता है। .... ठीक है, मुझे अनन्त व्यथा भोगनी है – भोगूँगी-भोगूँगी-”
संसार में रहकर ही सांसारिक आकर्षणों को पराजीत किया जा सकता है। संसार के दुःख-सुख को भोगे बिना उसे निस्सार कहना पलायन है। निग्रह की सच्ची कसौटी संसार ही है। संसार से भागकर निग्रह की बात करना अपने आप को धोखा देना है। राजा यशोवर्मन की आकांक्षा, कि मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता का ऐसा मन्दिर हो, जो मनुष्य को क्षण के मोह के पतन से सचेत कर जाग्रत कर सके और शिल्पी के जीवन का कतु अनुभव ही खजुरहो के इन मन्दिरों के निर्माण का कारण बना। सम्पूर्ण नाटक मनुष्य के इस पतन और इसके उदात्तीकरण की दार्शनिक व्याख्या है। नाटक में दर्शन अवश्य है, पर कहीं भी इतना बोझिल नहीं है, कि दर्शक या पाठक उससे ऊब जाये।
नाटककार ने ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कलाकार अपने युग की देन होता है। और प्रत्येक महान कलाकृति में अपने युग की इतनी गहरी छाप होती है कि उस कृति को उस युग का सबसे अधिक मूल्यवान और प्रामाणिक ऐतिहासिक परिपत्र कहा जा सकता है। संसार को युग-युग से सताने वाले ‘मोह के क्षण’ को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ढाल कर अपने युग को सांसारिकता से ‘मोक्ष’ की ओर अग्रसर कराने की नाटककार की सफल चेष्टा है –‘खजुराहो का शिल्पी’ । ‘खजुराहो का शिल्पी’ की ऐतिहासिक कथावस्तु डॉ. शंकर शेष के लिए माध्यम मात्र रही है, सम्पूर्ण नाटक की आत्मा रही है- ‘मोह के क्षण’ से गुजरते हुए ‘मोक्ष’ का अनुभव।
‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक की भाषा
नाटक में भाषा ही नाटककार के उद्देश्य या विचार को दर्शकों-पाठकों तक सम्प्रेषित करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शती की एक कथा को लेकर साकार हुआ है। नाटक की भाषा पात्रानुकूल बनी है। प्रत्येक पात्र अपने स्तर की भाषा बोलता है। यशोवर्मन, शिल्पी, माधव तथा धर्मगुरु और तांत्रिक के संवादों में भाषागत गांभिर्य है।
डॉ. शंकर शेष के सभी नाटकों की भाषा अपनी सरलता और स्वाभाविकता के कारण सहज सम्प्रेषणीय है। इस नाट्य-कृति में भी ऐसी भाषा प्रयुक्त हुई है, जो सरल, स्वाभाविक और रोचक है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि अपने इन गुणों के कारण उनकी नाटकीय भाषा की भाव-वहन क्षमता में कोई कमी आई है। उनकी भाषा जितनी सरल है, उतनी ही भाव सबल भी। अपने इस ऐतिहासिक नाटक में उन्होंने इसी सहज-सरल भाषा का प्रयोग किया है और इस तथ्य को झुठला दिया है कि ऐतिहासिक वातावरण का निर्माण करने में केवल संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही सहायक हो सकती है। इसमें अधिकांश सरल-स्वाभाविक बोलचाल की भाषा प्रयुक्त हुई है, जो अपनी स्पष्टता और स्वाभाविकता के कारण अत्यन्त स्पष्ट प्रतीत होती है। इस नाटक के काल बोध के लिए भाषा का संस्कृत प्रचुर होना आवश्यक था। अतः नाटक में कुछ संस्कृत प्रचुर शब्दों का प्रयोग जरुरी रहा। इस नाटक की काव्यात्मक भाषा ने इस नाटक की भाव गरिमा की अभिवृद्धि की है।
इस नाटक के अधिकांश संवाद भाषिक धरातल पर काव्यत्वपूर्ण बने हुए है। इसलिए काव्यत्व की खोज करने वाले समीक्षकों को निराश नहीं होना पडेगा। वस्तुतः नाटक का काव्यत्व सुरक्षित है नाटक के अर्थ की लय में। नाटक की वाक्य रचना का रूप प्रायः संक्षिप्त और चुस्त ही है; न तो उसमें शैथिल्य है, और न विस्तार भाव है। इससे नाटकीयता में अभिवृद्धि होकर अर्थ गाम्भीर्य भी आ गया है। कहीं-कहीं तो काफी छोटे-छोटे वाक्यों में नाटककार ने प्रभाव की सृष्टि की है और कलात्मकता को उत्पन्न किया है। साथ ही ‘खजुराहो का शिल्पी’ नाटक में प्रभावात्मक लम्बे-लम्बे वाक्य भी है जिसके द्वारा पात्रों की मानसिक स्थिति भी स्पष्ट होती है और दर्शक भी इससे प्रभावित होता है।
’खजुराहो का शिल्पी’ की भाषा दर्शन विवेचन में सूक्तियों का रूप धारण कर नयी जान भर देती है। जैसे - .... स्री को देखने के लिए स्री की नहीं, पुरुष की दृष्टि आवश्यक होती है। ..... कला का मार्ग समझने के लिए संस्कार आवश्यक है।....... जो लोग दूसरों की व्यथा कुरेद-कुरेदकर पूछते है, वे लोग सहनुभूति का नाटक कर उसका बहुत क्रुर आनन्द लेते हैं। ..... इन संवादों में आरम्भ से लेकर अन्त तक भावुकता का ज्वर है, जिससे वे दर्शकों एवं पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर देते हैं।
नाटक में नाटककार ने बिन्दु-चिन्हों का प्रयोग भरकस मात्रा में किया है। जिससे अर्थ की गूँज को पाठकों तथा दर्शकों तक सम्प्रेषित कर सके। ‘खजुराहो का शिल्पी’ में प्रयुक्त चिन्हों के कारण पात्र अपने मुख से पूर्ण वाक्य न कहकर भी एक अर्थ गूँज छोड़ देता है। जिससे वाक्य के अर्थ को अत्यधिक विस्तार-भूमि मिल जाती है।
समग्रतः कहा जा सकता है कि भाषा पर नाटककार का पूर्ण अधिकार है। प्रस्तुत नाटक में नाटककार ने पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग किया है जो सरल, स्वाभाविक और रोचक है|
प्रस्तुति-प्रा. संतोष गायकवाड़,
Wednesday, 18 April 2018
PRONOUN सर्वनाम
सर्वनाम
सर्वनामों की कारक रचना:-
संज्ञा
शब्द के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते हैं। संज्ञा की भाँति
ही उनके विकारी और अविकारी रुप होते हैं। संज्ञा के समान सर्वनाम में भी वचन और
कारक हैं। लिंग के कारण सर्वनामों का रुप नहीं बदलता। विभक्तिरहीत कर्ता कारक की
बहुवचन रचना में पुरुषवाचक और अनिश्चयवाचक सर्वनामों को छोडकर शेष (अन्य)
सर्वनामों का रूपांतर नहीं होता। विभक्ति के योग से अधिकांश सर्वनाम दोनों वचनों
में विकृत रुपो में आते हैं। अनिश्चयवाचक और निजवाचक सर्वनामों की कारक रचना केवल
एक वचन में होती हैं। ‘क्या’ और ‘कुछ’ सर्वनामों का कोई रूपांतर नहीं होता। उनका
प्रयोग केवल विभक्तिरहीत कर्ताकारक और कर्मकारक में होता हैं। इस रूपांतर पर विचार
करने के पश्चात सर्वनामों की कारक रचना को निम्नांकित रुप में विवेचित किया जा
सकता हैं-
1)
पुरुषवाचक
सर्वनाम ( मै, तु
) - मुझ, तुझ।
2)
निश्चयवाचक
सर्वनाम ( यह, वह
) - इस, उस।
3)
संबंधसुचक
/ वाचक सर्वनाम ( जो ) - जिस।
4)
प्रश्नवाचक
सर्वनाम ( कौन ) - किस।
5)
अनिश्चयवाचक
सर्वनाम ( कोई, कुछ
) - कोई, कुछ, किसी।
6)
निजवाचक
सर्वनाम (आप) - आप।
1)
पुरुषवाचक
सर्वनाम ( मै, तु
):-
पुरुषवाचक
सर्वनाम की कारक रचना में बहुत समानता हैं। कर्ता और संबोधन कारक को छोडकर शेष, कारकों में एक वचन में ‘मैं’
का
विकृत रुप ‘मुझ’ और ‘तु’ का विकृत रुप ‘तुझ’
होता
हैं। संबंधकारक के दोनों वचनों में ‘‘मै’’ का विकृत रुप क्रमश:‘में’
और
‘हम’ होता हैं। विभक्तिसहीत कर्ता कारक के
दोनों वचनों में और संबंधकारक को छोडकर शेष कारकों में बहुवचन में दोनों का रुप
अविकृत रहता हैं। पुरुषवाचक सर्वनामों की कारक रचना के विभिन्न रुप इस प्रकार हैं।
उत्तम पुरुष–‘मैं’
कारक
एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरूप
‘0’ ) मैं हम
( विकृतरुप
‘ने’ ) मैंने हमने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
‘0’ ) मुझे हमें
( विकृतरुप
‘को’ ) मुझको हमकों
3)
करण
कारक ( से ) मुझसे हमसे
4)
संप्रदान
कारक (को, के
लिए) मुझको हमको
5)
अपादान
कारक ( से ) मुझसे हमसे
6)
संबंध
कारक मेरा, मेरी, मेरे हमारा, हमारी, हमारे
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
आधिकरण
कारक मुझमें हममें
( में, पर ) मुझ
पर हम
पर
मध्यम
पुरुष – ‘तु’
कारक
एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
‘0’ ) तु
तुम
( विकृतरुप
‘ने’ ) तुने तुमने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
‘0’ ) तुझे तुम्हें
( विकृतरुप
‘को’ ) तुझको तुमको
3)
करणकारक तुझसे तुमसे
( से
)
4)
संप्रदान
कारक तुझको तुमको
( को, के लिए )
5)
अपादान
कारक ( से ) तुझसे तुमसे
6)
संबंधकारक
तेरा, तेरी, तेरे तुम्हारा,तुम्हारी,तुम्हारे
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक ( में, पर
) तुझमें
तुममे
तुझपर तुमपर
2)
निश्चयवाचक
सर्वनाम (यह, वह
):-
जिस
सर्वनाम से पास की या दुर की वस्तुओंका बोध होता हैं, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। निश्चयवाचक
सर्वनाम के दोनो वचनों कीकारक रचना में विकृत रुप आता हैं। एकवचन में ‘यह’
का
विकृत रुप ‘इस’ और ‘वह’ का विकृतरुप ‘उस’
होता
हैं। इसी तरह बहुवचन में ‘इन’ और ‘उन’ आते हैं। इनके विभक्तिसहीत बहुवचन
कर्ताकारक के अन्त में ‘न’ में विकल्पसे ‘ह’
जोडा
जाता हैं। कर्म तथा संप्रदान कारकों में बहुवचन में ‘ए’
के
पहले ‘न’ में ‘ह’
मिलाया
जाता हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनामों की कारक रचना को निचे स्पष्ट किया जाता हैं।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम ( यह )
कारक एकवचन बहुवचन
1)
कर्ताकारक
(मूलरुप
‘0’) यह
ये
(विकृतरुप
‘ने’) इसने इन्होंने
2)
कर्मकारक
(मूलरुप
‘0’) इसे इन्हें
(विकृतरुप
‘को’) इसको इनको
3)
करणकारक
(से) इससे इनसे
4)
संप्रदान
कारक इसको, इसके लिए इनको,इनके लिए
(को, के लिए)
5)
अपादान
कारक (से) इससे इनसे
6)
संबंधकारक
इसका, इसकी,इसके इनका,इनकी,इनके
(का, की,
के,रा,
री, रे)
7)
अधिकरण
कारक इसमें इनमें
(में, पर) इसपर इनपर
निश्यचवाचक सर्वनाम ( वह )
कारक एकवचन बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
‘0’ ) वह वे
( विकृतरुप
‘ने’ ) उसने उन्होंने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
‘0’ ) उसे उन्हें
( विकृतरुप
‘को’ ) उसको उनको
3)
करणकारक
( से
) उससे उनसे
4)
संप्रदान
कारक उसको उनको
( को, के लिए ) उसके लिए उनके लिए
5)
अपादान
कारक ( से ) उससे
उनसे
6)
संबंधकारक
उसका, उसकी, उसके उनका, उनकी, उनके
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक ( में, पर
) उसमें, उसपर उनमें, उनपर
3)
संबंधसुचक
/ संबंधवाचक सर्वनाम ( जो )
जिस सर्वनाम से एक बात का सम्बन्ध दुसरी बातसे
दिखाया जाता हैं, उसे
संबंधवाचक या संबंधसुचक सर्वनाम कहते हैं। संबंधवाचक सर्वनाम की कारक रचना को
निम्नांकित रुप में देखा जा सकता हैं।
संबंधवाचक सर्वनाम ( जो )
कारक एकवचन बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
‘0’ ) जो जो
( विकृतरुप
‘ने’ ) जिसने जिन्होंने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
‘0’ ) जिसे
जिन्हे
( विकृतरुप
‘को’ ) जिसको जिनको
3)
करणकारक( से ) जिससे जिनसे
4)
संप्रदान
कारक जिसको जिनको
( को, के लिए ) जिसके
लिए जिनके लिए
5)
अपादान
कारक ( से ) जिससे
जिनसे
6)
संबंधकारक
जिसका, जिसकी, जिसके जिनका,जिनकी, जिनके
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक ( में, पर
) जिसमें,
जिसपर जिनमें, जिनपर
4) प्रश्नवाचक सर्वनाम ( कौन, क्या )
प्रश्न
पुछने के लिए जिस सर्वनाम का प्रयोग होता हैं, उसे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं। कोई प्रश्न
करने के लिए ऐसे सर्वनामों का प्रयोग होता हैं। प्रश्नवाचक सर्वनाम ‘कौन’
और
‘क्या’ की कारक रचना निम्नलिखित हैं।
प्रनवाचक सर्वनाम ( कौन )
कारक एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
) कौन कौन
( विकृतरुप
‘ने’ ) किसने किन्होंने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
) किसे
किन्हे
( विकृतरुप
‘को’ ) किसको किनको
3)
करणकारक( से )
किससे किनसे
4)
संप्रदान
कारक किसको किनको
( को, के लिए ) किसके लिए किनके
लिए
5)
अपादान
कारक ( से ) किससे किनसे
6)
संबंधकारक
किसका, की,
के
किनका, की,
के
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक ( में, पर
) किसमें, किसपर किनमें, किनपर
‘क्या’ के विकृत रुप को ‘काहे को’, ‘काहे से’ आदि का प्रयोग नहीं होता।
5)
अनिश्चयवाचक
सर्वनाम ( कोई, कुछ
)
जिस
सर्वनाम से किसी निश्चित वस्तु का बोधनहीं होता उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं।
उदा. कोई, कुछ
सर्वनाम इनसे निश्चित रुप से कोई बोध नहीं होता। ऐसे सर्वनाम अनिश्चयवाचक सर्वनाम
हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनामों की कारकरचना निचे दी जाती हैं।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम ( कुछ )
कारक एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
) कुछ कुछ
( विकृतरुप
‘ने’ ) - -
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
) - -
( विकृतरुप
‘को’ ) कुछको कुछको
3)
करणकारक( से ) कुछसे कुछसे
4)
संप्रदान
कारक कुछको कुछको
( को, के लिए ) कुछके
लिए कुछके लिए
5)
अपादान
कारक ( से ) कुछसे कुछसे
6)
संबंधकारक
कुछका, की,
के
कुछका, की,
के
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक ( में, पर
) कुछ में, कुछ पर कुछ
में, कुछ
पर
‘कुछ’ सर्वनाम का रुप दोनों वचनों में एकसमान
रहता हैं। एकवचन को तो परीमाण का और बहुवचन हो तो ‘संख्या’ का बोध होता हैं।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम ( कोई )
कारक एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
) कोई कोई
( विकृतरुप
‘ने’ ) किसी
ने किसी - किसी ने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
) - -
( विकृतरुप
‘को’ ) किसीको किसी - किसी को
3)
करणकारक( से ) किसी
से किसी
- किसी से
4)
संप्रदान
कारक किसी को किसी - किसी को
( को, के लिए ) किसी
के लिए किसी-किसी
के लिए
5)
अपादान
कारक ( से ) किसी से किसी - किसी से
6)
संबंधकारक
किसीका, की,
के किसी-किसी, की,
के
( का, की,
के, रा,
री, रे )
7)
अधिकरण
कारक किसी में, किसी
- किसी मे,
( में, पर ) किसीपर किसी
- किसी पर
‘कोई’ का बहुवचन ‘कोई - कोई’, ‘किसी - किसी’ आदि हो सकता हैं।
6)
निजवाचक
सर्वनाम ( आप )
जिस
सर्वनाम से स्वयं या खुद का बोध होता हैं,
उसे
निजवाचक सर्वनाम कहते हैं। आदरसूचक ‘आप’ सर्वनाम से यह भिन्न हैं। निजवाचक आप
सर्वनाम की कारक रचना निम्नांकित हैं।
निजवाचक सर्वनाम ( आप )
कारक एकवचन
बहुवचन
1)
कर्ताकारक
( मूलरुप
) आप आप
( विकृतरुप
‘ने’ ) आपने आपने
2)
कर्मकारक
( मूलरुप
‘0’ ) - -
( विकृतरुप
‘को’ ) आपको आपको
3)
करणकारक
( से ) आपसे/अपनेसे आपसे/अपनेसे
4)
संप्रदान
कारक आपको, अपने के लिए आपको
( को, के लिए )
5)
अपादान
कारक ( से ) आपसे, अपने से आपसे, अपनेसे
6)
संबंधकारक
( का, की, के ) आपका,
की, के आपका, की,
के
7)
अधिकरण
कारक आपमें, अपने में आपमें, अपने में
( में, पर ) आपपर, अपने
पर आपपर, अपने पर
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